Untouchability in Ancient India : सनातन धर्म में अस्पृश्यता, जातिगत छूआछूत और भेदभाव

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सनातन हिन्दू धर्म

Untouchability in Ancient India

मेरी एक ब्राह्मण सहेली है. हम दोनों कुछ टाइम से साथ-साथ काम कर रहे हैं. खूब बातें और गपशप होती हैं.

बचपन से ही हम फ्रेंड्स की आदत होती है कि खाना खाते समय अपने-अपने टिफन का खाना एक-दूसरे को शेयर करते हैं, लेकिन मैं ऐसे किसी व्यक्ति के घर का खाना टेस्ट करना भी पसंद नहीं करती जिसके घर में नॉनवेज भी बनाया जाता हो, क्योंकि मुझे उस घर के बर्तनों पर भरोसा नहीं. खाना तो बहुत दूर की बात है, उस घर का पानी पीना भी पसंद नहीं करती. मैं ऐसी लड़की के साथ किसी PG के एक कमरे में भी रहना पसंद नहीं करती.

एक बार मैं अपनी उस सहेली के घर पर गई थीं. काफी देर बैठी थीं लेकिन पानी भी नहीं पीया, अपनी बोतल ले गई थीं, उसी से पीया. जिस दिन वो अपने टिफन में नॉनवेज लाती है, उस दिन मैं उसके साथ बैठकर खाना नहीं खाती, और यदि बाकी फ्रेंड्स उसी के साथ खाना खा रहे हों, तो मैं अकेली ही बैठकर खाती हूं.

जब ऐसे लोग अपने घर पर बना भगवान का प्रसाद वगैरह देते हैं, तो ले तो लेती हूं, लेकिन खाती नहीं, घर आकर अपने गार्डन के किसी गमले में डाल देती हूं और मन ही मन क्षमा मांग लेती हूं. मजबूरी न हो तो मैं ऐसे लोगों को अपने घर पर बुलाने से भी परहेज ही करती हूँ, क्योंकि पता नहीं वे कहाँ से क्या खाकर या कैसे खानपान को हाथ लगाकर आ रहे हों.

पहले तो वो सबके बीच में मेरा बड़ा मजाक उड़ाती थी कि-

“बड़ी आदर्शवादी बनती है, बड़ी धार्मिक बनती है..”
“अरे इतना कौन मानता है,”
“अरे थोड़ा मुंह में चला जायेगा तो क्या हो जायेगा,”
“आजकल अंडे को नॉनवेज नहीं माना जाता यार,”
“अरे ये तो वेज है, यह तो टेस्ट कर लो….”
फलाना ढिमका….

लेकिन अब वो भी समझ चुकी है कि मुझे इस मामले में कुछ भी समझाना और बहलाना बेकार ही है, तो अब वो भी कुछ नहीं कहती.

मेरे घर का कोई भी सदस्य जब विदेश जाता है तो जब तक वहां रहता है, तब तक सलाद और फ्रूट्स ही खाता रहता है, क्योंकि विदेशों में बनी खाने-पीने की चीजों पर बहुत कम ही भरोसा है. इसी के साथ, हमारी पूरी कोशिश रहती है कि लैदर से बनी कोई चीज हमारे घर पर न आए.

food

हालांकि मैं जानती हूं कि आज के अशुद्धि भरे माहौल में इन सब चीजों से पूरी तरह नहीं बचा जा सकता है, लेकिन जितना बच सकती हूं, उतनी कोशिश जरूर करती हूं. यह सब हमें घर वालों ने नहीं सिखाया, लेकिन बस हम बचपन से ऐसे ही हैं.

अब यदि कोई कुप्रचारिया आकर कह दे कि “अदिति तो ब्राह्मणों को अछूत मानती है और इसीलिए उनके घर का पानी भी नहीं पीती….”
(वैसे ही, जैसे सनातन धर्म में जाति या वर्ण के आधार पर छूत-अछूत अस्पृश्यता भेदभाव जैसे कुप्रचार किए गए हैं….)

तो वह ऐसा सोचने के लिए स्वतंत्र है, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.

जाति या वर्ण नहीं, बल्कि शुद्धता और संगति है कारण

आप यदि सही चीजों को ही पढ़ने में दिलचस्पी लेते हैं, यदि आप सनातन धर्म के सभी ग्रंथों का ठीक से अध्ययन करते हैं, तो आपको पता चलेगा कि ब्राह्मण किसे कहा गया है और शूद्र, चांडाल, मलेच्छ किसे कहा गया है. आपको पता चलेगा कि शूद्रता क्या है और ब्राह्मणत्व क्या है.

आपको पता चलेगा कि किसी को शूद्र नाम की किसी जाति से कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन क्यों तीनों वर्णों को शूद्रों से कुछ मामलों में दूर ही रहने के लिए कहा जाता था. इसलिए ताकि संगति का असर पड़ता है और संगति का असर होने से रोका जा सके, साथ ही समाज में शुद्धता बने रहे. दूर रहने का कारण किसी की जाति या वर्ण नहीं, बल्कि किसी आचरण था.

आज भारत में बड़ी संख्या में लोग मांसाहारी बन गए हैं, कारण क्या है..??
कारण कहीं न कहीं संगति ही तो है. क्यों अपराध बढ़ते जा रहे हैं, सुविधाओं के नाम पर अशुद्धता बढ़ती जा रही है, इन सबका पहला कारण संगति ही है.

“काजल की कोठरी में कैसो हू सयानो जाय,
एक लीक काजर की लागि है पे लागि है”

क्या आपने कभी किसी पौराणिक कथा में पढ़ा है कि शूद्रों ने या चांडालों ने अपने अधिकार के लिए आंदोलन किया हो, या आरक्षण वगैरह मांगा हो, या समाज पर या अन्य वर्णों पर भेदभाव का आरोप लगाया हो या उनसे मैला वगैरह उठवाने जैसा कोई काम कराया गया हो?

नहीं, कभी नहीं, ऐसी कहानियां केवल आधुनिक समय की ही मिलेंगी. पौराणिक कथाओं में कहीं ऐसा कुछ नहीं मिलेगा, क्योंकि उस समय के शूद्रों को भी पता था कि वे शूद्र क्यों कहलाते हैं और वे चाहें तो अपने आचरण और कर्मों में बदलाव लाकर अन्य वर्ण को धारण कर सकते थे.

चाहे विज्ञान हो या धर्म, दोनों का ही यह सिद्धांत है कि दुनिया की कोई भी वस्तु (या मनुष्य) अपने-अपने गुण और स्वभाव के अनुसार ही अलग-अलग वर्ण को धारण करता है.

दलित, जातिगत छूआछूत, अस्पृश्यता

अंग्रेजों ने जिन हिं+दू जातियों को अनुसूचित जाति वर्ग में शामिल किया था क्या वे सभी सचमुच दलित थे? आखिर हिन्दु+ओं में इतनी दलित जातियां आई कहाँ से, जबकि हिं+दू संस्कृति तो वैदिक संस्कृति पर आधारित चतुर्वर्ण व्यवस्था थी, जिसमें जन्म से सभी मनुष्य शुद्र और कर्म के आधार पर ही अन्य जातियां बनते थे. जाति जन्म पर आधारित है और वर्ण कर्म पर. पूरे भारतीय इतिहास व साहित्य में ‘दलित’ शब्द का उल्लेख कहीं नहीं है. एक से बढ़कर एक दलित साधु हो चुके हैं जिन्हें सभी हिं+दू पूजनीय मानते हैं.

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दलित जातियों की उत्पत्ति और जातिगत छूआछूत का स्रोत हिं+दू धर्म ग्रंथ नहीं, बल्कि मुस्लि+म युग के दौरान हिं+दू दासों से कराये गए गंदे कार्य हैं. दासप्रथा और नारी-शोषण का इतना घिनौना स्वरूप अन्य किसी सम्प्रदाय के इतिहास में नहीं मिलेगा. इस्ला+मिक आक्रांताओं और ईसाईयों के आगमन से पहले “भंगी” भारत में होते ही नहीं थे और न ही संस्कृत में इसके लिए कोई शब्द है.

वैदिक समाज का संगठन पूरी तरह वैज्ञानिक है इसलिए मृत पशुओं का काम करने वाले चर्मकार, मांसाहारियों के लिए मांस की दुकाने चलाने वाले कसाई और मृतक व्यक्तियों का अग्नि संस्कार कराने वाले डोम गाँव अथवा शहर के बाहरी हिस्से में बसाये जाते थे ताकि गाँवों-नगरों में अशुद्धता, प्रदूषण अथवा संक्रमण का खतरा उत्पन्न न हो, लेकिन इन्हें अछूत नहीं माना जाता था.

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उस समय अधिकतर लोग शाकाहारी ही होते थे. (आपत्तिकाल को छोड़कर) तीनों वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) को मांसाहार से दूर रहने के लिए ही कहा गया है. ब्राह्मणों को इसलिए भी पूजनीय कहा गया है क्योंकि वे भयंकर दरिद्रता की स्थिति में भी अनुचित कार्यों या अनुचित व्यवसाय को करने के लिए तैयार नहीं होते थे, जैसे कि सुदामा.

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संस्कृत में “अछूत” को “अस्पृश्य” कहते हैं, और किसी भी वैदिक ग्रंथ में “अस्पृश्य” शब्द का उल्लेख तक नहीं है. “वैदिक ग्रंथ” से तात्पर्य है वैदिक संहिताएं, ब्राह्मण-ग्रंथ, आरण्यक, उपनिषद, समस्त वेदाङ्ग साहित्य जिसमें गृह्य-सूत्र जैसे धर्मशास्त्र के सारे आर्ष मौलिक ग्रंथ भी सम्मिलित हैं आदि.

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यह सत्य है कि हिं+दू समाज में जातिप्रथा एवं अस्पृश्यता का अस्तित्व था, किन्तु इसका कारण हजार सालों की गुलामी के परिणामस्वरूप उत्पन्न सामाजिक जड़ता और आत्मरक्षण को न बतलाकर हिं+दू धर्म को ही दोषी बतलाया गया, क्योंकि हम अंग्रेजों की बकवासों को ही सत्य समझने की भूल करते रहे हैं. वर्ण-व्यवस्था को जाति-व्यवस्था बताने की धूर्तता अंग्रेजों ने की.

हर जगह मध्ययुग से पहले की बस्तियों में पक्के मकानों में वैश्यों और शूद्रों के रहने के प्रमाण मिले हैं, जबकि ब्राह्मण फूस की झोपड़ियों में रहते थे, यहाँ तक कि मगध के महामंत्री चाणक्य भी झोपड़ी में रहते थे.

शूद्रों द्वारा तीनों वर्णों की सेवा क्यों?

हां, ग्रंथों में यह तो लिखा है कि शूद्रों को उक्त तीनों वर्णों की सेवा करनी चाहिए, लेकिन क्या केवल इतना ही लिखा है? और कुछ नहीं लिखा?

क्या आप लोगों ने कहीं भी ऐसी कोई बात पढ़ी है कि शूद्रों का कार्य मैला उठाना या साफ सफाई करना था? या कहीं किसी कथा में ऐसा कुछ होते हुए पढ़ा हो?

बात करें सेवा करने की, तो सेवा का क्या अर्थ है? किस अर्थ में कही गई है यह बात? और सेवा किसने नहीं की? क्या भगवान श्रीराम ने अपने गुरुओं की सेवा नहीं की थी?

श्रीकृष्ण को तो लगभग सब पहचान ही गए थे कि वे परब्रह्म हैं, लेकिन क्या उन्हीं श्रीकृष्ण ने अपने गुरु संदीपन की सेवा नहीं की थी?

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यहां तक कि व्याध गीता में जब एक शूद्र व्याध एक ब्राह्मण को ज्ञान देता है तो वह ब्राह्मण आदर के साथ हाथ जोड़कर उस व्याध की प्रदक्षिणा करता है.

जिस स्थान पर नंदी ने भगवान शिव को ज्ञान दिया था, उस स्थान पर भगवान शिव महादेव होकर भी अपने ही वाहन नंदी के सामने नहीं बैठते, क्योंकि वहां वे नंदी के शिष्य बनकर रहते हैं.

जब सूतपुत्र लोमहर्षण के पुत्र उग्रश्रवा भी जब तपस्वियों, ब्रह्मर्षियों को महाभारत की कथा सुनाते हैं तो सभी बड़े बड़े ब्रह्मर्षि उनका सम्मान करते हैं, उनके लिए आसन लगाते हैं, उन्हें आदर सहित बिठाते हैं. इसलिए ऐसा तो कहा ही नहीं जा सकता है कि उस समय सूतों को पढ़ने-लिखने का अधिकार नहीं था या उनका सम्मान नहीं था.

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क्या लक्ष्मण जी अपने भैया-भाभी के लिए जंगल में सुंदर पर्णकुटी का निर्माण नहीं करते? क्या वे उनकी सेवा नहीं करते थे? तो जब सभी सेवा कार्य कर रहे हैं तो बात केवल शूद्रों पर ही क्यों अटकाई जाती है? बड़े से बड़ा राजा हो या महर्षि, जब किसी के पास कुछ सीखने के लिए या विद्या का दान मांगने के लिए गया है, तो उसकी सेवा भी की है.

प्रत्येक व्यक्ति अपने से अधिक ज्ञानी के पास ही तो जायेगा न शिक्षा लेने के लिए. और जिसके पास विद्या का दान लेने जायेगा तो उसके चरणों में बैठकर ही तो विद्या ग्रहण कर पाएगा न. क्या यह भी कोई अपमान की बात है? एक अहंकारी कभी कोई विद्या ग्रहण कर सकता है क्या?

यूं तो मित्र का स्थान बराबरी का होता है, लेकिन जब अर्जुन श्रीकृष्ण से कुछ मांगने गए तो वे भी उनके चरणों में ही बैठे. वहीं, महाभारत के वनपर्व में जब हनुमान जी भीम में बल का अहंकार देखते हैं, तब वे भीम से कहते हैं कि- “क्या तुम्हें धर्म का बिल्कुल ज्ञान नहीं? मालूम होता है कि तुमने कभी विद्वानों की सेवा नहीं की…”

दरअसल, व्यक्ति जिसकी सेवा करता है या जिसके अधीन रहकर कुछ सीखता है, वह उसी के जैसा बन जाता है, और इसीलिए सभी को अपने से अधिक ज्ञानवान और सदाचारी मनुष्य की ही सेवा करने के लिए कहा गया है, जहां सेवा का अर्थ गुलामी या दासता से नहीं, बल्कि किसी से कुछ सीखना या विद्या का दान लेना है.

कोई मनुष्य क्षत्रिय के पास जायेगा तो क्षत्रियत्व ग्रहण करेगा, और ब्राह्मण के पास जायेगा तो ब्राह्मणत्व ग्रहण करेगा. और फिर यह बात भी तो लिखी है कि जन्म से प्रत्येक मनुष्य शूद्र है, और यह बात केवल मनुस्मृति में ही नहीं, महाभारत में भी कई जगहों पर लिखी है, तो जब जन्म से प्रत्येक मनुष्य ही शूद्र है तो उक्त तीनों वर्णों की सेवा करने वाली बात तो प्रत्येक मनुष्य के लिए ही कही गई है न….?

Written By : Aditi Singhal (working in the media)
(Guest Author)


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