Rukmini Mangalam Patram : श्रीकृष्ण के नाम देवी रुक्मिणी का प्रेम पत्र

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रुक्मिणी मंगल पत्रम्

Rukmini Prem Patra in Sanskrit and Hindi

महालक्ष्मी स्वरूपा देवी रुक्मिणी (Devi Rukmini) विदर्भराज कुण्डिनपुरीपति महाराज भीष्मक की पुत्री थीं. राजकुमारी रुक्मिणी अपने यहां आने वाले लोगों द्वारा द्वारकाधीश श्रीकृष्ण (Dwarkadheesh Shri Krishna) के रूप, गुण और वैभव की लगातार प्रशंसा सुनकर श्रीकृष्ण पर मोहित हो गईं. सब लोग उन्हें बताते कि “श्रीकृष्ण अलौकिक पुरुष हैं. रूप, सौंदर्य और गुणों के भण्डार हैं. इस समय संपूर्ण विश्व में उनके समान अन्य कोई पुरुष नहीं है.”

प्रीत सनातन और पुरातन नाता..

देवी रुक्मिणी श्रीकृष्ण से प्रेम करने लगीं और मन ही मन उन्हें ही अपना पति भी मान लिया और निश्चय कर लिया कि श्रीकृष्ण को छोड़कर किसी को भी पति रूप में वरण नहीं करेंगी. उन्होंने अपनी यह इच्छा अपने माता-पिता को भी बता दी. उनके माता-पिता को इस बात से कोई आपत्ति नहीं थी, लेकिन रुक्मिणी का भाई और कृष्णद्रोही रुक्मी ने अपनी बहन का विवाह अपने मित्र शिशुपाल के साथ तय कर दिया.

तब राजकुमारी रुक्मिणी रोजाना गौरी मंदिर में जाकर पार्वती जी को मनाने लगीं. इसी बीच उन्होंने अपने विश्वासपात्र ब्राह्मण को अपना एक पत्र देकर श्रीकृष्ण के पास भेज दिया. इस पत्र को रुक्मिणी मंगल पत्रम् (Rukminimangalam Patram) के नाम से जाना जाता है.

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इस पत्र में देवी रुक्मिणी ने श्रीकृष्ण के प्रति अपने प्रेम को प्रकट किया था और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करने की प्रार्थना की थी. द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित मां रुक्मिणी देवी मंदिर में सुरक्षित रखे इस पत्र के अनुसार, श्रीकृष्ण को लिखा यह पत्र सात श्लोकों में समाविष्ट है.

राजकुमारी रुक्मिणी भगवान श्रीकृष्ण को सम्बोधित करते हुए पत्र में लिखती हैं-

श्रृत्वा गुणान्भुवनसुन्दर श्रृएवतां ते
निर्विश्य कर्णविवरैर्हरतोऽङ्गतापं।
रूपं दशां दृशिमतामखिलार्थलाभं
त्वप्यच्युताविशती चित्तमपत्रपं मे॥१॥

“हे भुवन सुन्दर! आपके गुण, सुनने वालों के कानों के रास्ते से हृदय में प्रवेश कर एक-एक अंग के ताप और और जन्म-जन्म की जलन को बुझा देते हैं. तथा आपका रूप-सौंदर्य संसार के सभी नेत्रधारी जीवों के चारों पुरुषार्थ एवं समस्त सुखों को प्रदान करते हैं. आपके गुणों को श्रवण करके हे अच्युत! मेरा चित्त लज्जा छोड़कर आप ही में प्रविष्ट हो गया है.”

का त्वा मुकुन्द महती कुलशीलरूपा
विद्यावयोद्रविणधामभिरात्मतुल्यं।
धीरा पतिं कुलवती न वृणीत कन्या
काले नृसिंह नरलोकमनोऽभिरामं॥२॥

“हे मुकुंद! चाहे जिस दृष्टि से देखें- कुल, शील, स्वभाव, सौंदर्य, विद्या, अवस्था, धन और धर्म… सभी में आप अद्वितीय हैं. मनुष्यलोक में जितने भी प्राणी हैं, सबका मन आपको देखकर शांति का अनुभव करते हुए आनंदित होता है. ऐसी स्थिति में हे पुरुषसिंह! आप ही बतलाइये, ऐसी कौन सी कुलवती, परम गुणवती और धैर्यवती कन्या होगी, जो विवाह योग्य समय आने पर आपको ही पति के रूप में वरण न करेगी?”

यहां देवी रुक्मिणी उदाहरणों के बहाने श्रीकृष्ण के सामने अपने गुणों (कुलवती, महागुणवती और धैर्यवती) को प्रकट करना चाह रही हैं. चूंकि पहल रुक्मिणी जी ने की थी, अतः मन की बात को कहने का साहस भी उन्हें ही करना था. इसलिए अगले श्लोक में वे साफ शब्दों में कह देती हैं और अधिकार के साथ प्रस्ताव दे देती हैं-

तन्मे भवान्‌ खलु वृतः पतिरङ्गजाया-
मात्मार्पितश्च भवतोऽत्र विभो विधेहि।
मा वीरभागमभिमर्शतु चैद्य आरात्-
गोमायुवन्मृगपतेर्बलिमंबुजाक्ष॥३॥

“इसलिए हे नाथ! मैंने आपको आत्मसमर्पित कर दिया है. आप तो अन्तर्यामी हैं. मेरे भी मन की बात आपसे छिपी नहीं है. इसलिए हे विभो! आप यहां पधारकर मुझे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये. हे कमलनयन! मैं आपको समर्पित हो चुकी हूँ और सिर्फ आपकी हूँ. जैसे सियार सिंह का भाग नहीं ले जा सकता, उसी प्रकार हे वीर! शिशुपाल निकट आकर मेरा स्पर्श न कर सके.”

पूर्तेष्टदत्तनियमव्रतदेवविप्र-
गुर्वर्च्चनादिभिरलं भगवान्परेशः।
आराधितो यदि गदाग्रज एत्य पाणिं
गृह्ण्णातु मे न दमघोषसुतादयोऽन्न्ये॥४॥

“कुआँ आदि खुदवाने, यज्ञादि करने, दान, नियम, व्रत तथा देवता, संतों और गुरुओं आदि की पूजा के द्वारा यदि मैंने भगवान की कुछ भी आराधना की हो, तो हे श्रीकृष्ण! आप आकर मेरा पाणिग्रहण करें. श्रीकृष्ण के सिवाय शिशुपाल या अन्य कोई भी पुरुष मेरा स्पर्श न कर सके.”

श्वोभाविनि त्वमजितोद्वहने विदर्भान्
गुप्तः समेत्य पृतनपतिभिः परीतः।
निर्म्मथ्य चैद्यमगधेन्द्रबलं प्रसह्य
मां राक्षसेन विधिनोद्वह वीर्यशुल्कां॥५॥

“हे अजित! जिस दिन मेरा विवाह होने वाला है, उससे एक दिन पहले ही आप सेनापतियों के साथ गुप्त रूप से विदर्भ देश में आ जाइये और अपने बल-पराक्रम से शिशुपाल तथा जरासंध की सेना को परास्त करते हुए मेरे साथ राक्षस विधि के अनुसार विवाह कर लीजिये.”

राक्षस विवाह : उस समय किसी लड़की का हरण कर उससे विवाह करने को ‘राक्षस विवाह’ कहा जाता था. हालांकि, इस विवाह में देवी रुक्मिणी की ही पूर्ण सहमति और इच्छा थी, इसलिए यह गान्धर्व विवाह था. लेकिन समाज की नजर में वह श्रीकृष्ण द्वारा राक्षस विवाह करना ही कहलाता, इसलिए देवी रुक्मिणी ने “राक्षस विवाह” ही करने को कहा.

अन्तःपुरान्तरचरीमनिहत्य बन्धुं
स्त्वामुद्वहे कथमिति प्रवदाम्युपायं।
पूर्वेद्युरस्ति महती कुलदेवियात्रा
यस्यां बहिर्न्नवावधूर्ग्गिरिजामुपेयात्॥६॥

“अब यदि आप यह सोच रहे हैं कि ‘तुम तो अंतःपुर में रहती हो, मैं तुम्हारे भाई-बंधुओं को कोई हानि पहुंचाये बिना तुम्हें कैसे ला सकता हूँ’, तो मैं आपको उसका भी उपाय बतलाती हूँ. हमारे यहां एक नियम के अनुसार विवाह से एक दिन पहले कुलदेवी के लिए एक यात्रा होती है. उस यात्रा में नववधू को नगर के बाहर स्थित श्रीपार्वती जी के मंदिर में ले जाया जाता है. उस समय आप मेरा हरण कर मुझे ले जा सकते हैं.”

राजकुमारी रुक्मिणी अच्छी तरह जानती थीं कि विवाह के बीच में से उनका हरण कर ले जाना बिल्कुल आसान न होगा. इसलिए वे श्रीकृष्ण को उपाय बताकर कोई न कोई योजना बनाने का संकेत दे देती हैं. चूंकि उन्हें इस बात का डर भी था कि श्रीकृष्ण आएंगे या नहीं, तो वे इस परिस्थिति की संभावना की भी अनदेखी नहीं करतीं और आखिरी श्लोक में साफ शब्दों में बता देती हैं कि श्रीकृष्ण को रुक्मिणी के लिए आना ही होगा-

यस्याङ्घ्रिपङ्कजरजस्नपनं महान्तो
वाञ्चन्त्युमापतिरिव्वत्मतमोपहत्यै
यर्ह्यम्बुजाक्ष न लभेय भवत्प्रादं
जह्यामसून् व्रतकृशान् शतजन्मभिः स्यात्॥७॥

“हे अम्बुजनयन! उमापति भगवान् शिव के समान बड़े-बड़े महापुरुष भी अपने अन्तःकरण के अज्ञान को दूर करने के लिए आपके चरणकमल के रज से स्नान करना चाहते हैं (भगवान महादेव की जटाओं में निवास करने वाली गंगा जी को ‘विष्णुपदी’ भी कहते हैं), यदि मैं आपका वह प्रसाद, आपकी वह चरणरज न पा सकीं, तो व्रत द्वारा अपने शरीर को सुखाकर अपने प्राण त्याग दूँगी. सौ जन्मों में कभी तो आपकी कृपा प्राप्त होगी.”

श्रीकृष्ण और देवी रुक्मिणी का हुआ विवाह

देवी रुक्मिणी का संदेश पाकर भगवान श्रीकृष्ण रथ पर सवार होकर शीघ्र ही कुण्डिनपुर की ओर चल दिए. श्रीकृष्ण ने विद्युत तरंग की भांति पहुंचकर राजकुमारी रुक्मिणी का हाथ पकड़ लिया और उन्हें खींचकर अपने रथ पर बिठा लिया तथा तीव्र गति से द्वारका की ओर चल पड़े. रास्ते में उन्हें भयंकर युद्ध भी करना पड़ा. श्रीकृष्ण और उनके बड़े भाई बलराम जी ने सबको परास्त कर दिया. भगवान श्रीकृष्ण ने रुक्मिणी जी को द्वारका ले जाकर उनके साथ विधिवत विवाह किया.

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