Ramayan : माता कैकेयी ने श्रीराम के लिए 14 वर्षों का वनवास क्यों माँगा था?

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Ramayan

Shri Ram ko 14 Varsh ka Vanvas Kyon Mila

कुछ लोगों ने यह सवाल पूछा है कि राजा दशरथ जी ने श्रीराम का राज्याभिषेक करने का निर्णय उस समय क्यों लिया, जब उनके दो पुत्र भरत और शत्रुघ्न अयोध्या में भी नहीं थे? उन्होंने भरत और शत्रुघ्न के आने का इंतजार क्यों नहीं किया?

इन सब प्रश्नों के कई उत्तर हैं –
श्रीराम और भरत जी का एक-दूसरे के प्रति प्रेम,
राजा दशरथ जी को श्रवण कुमार के पिता का शाप,
श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी का वनवास जाना निश्चित.

यदि ज्येष्ठ पुत्र गुणवान हो, तो राजकाज का भार उसे ही दिया जाना चाहिए. महाराज दशरथ ने श्रीराम का राजतिलक करने का निर्णय अकेले नहीं लिया था. इसके लिए उन्होंने अपने सभी मंत्रीगणों की राय ली थी. जब उन्हें यह विश्वास हो गया था कि प्रजा के बीच श्रीराम अत्यंत लोकप्रिय हैं और उन्हें ही अपने राजा के रूप में देखना चाहती है, तब ही उन्होंने श्रीराम को युवराज का पद देने का निर्णय लिया था.

इसके बाद वाल्मीकि जी अयोध्याकाण्ड के सर्ग 1 में बताते हैं-
“राजा दशरथ श्रीराम का राज्याभिषेक शुभ मुहूर्त में ही करना चाहते थे, और जल्दबाजी में उन्होंने कैकेयनरेश और मिथिलापति राजा जनक को भी नहीं बुलवाया. उन्होंने सोचा कि वे दोनों इस सुखद समाचार को पीछे से सुन लेंगे.”

इसके बाद स्पष्टीकरण में बताया गया है कि- “यदि राजा दशरथ जनक जी और कैकेयनरेश को भी बुलाते तो उनके साथ भरत-शत्रुघ्न भी आ जाते (और फिर भरत जी के रहते श्रीराम का राज्याभिषेक कोई रोक ही नहीं सकता था, और श्रीराम को वनवास भी नहीं हो सकता था. इस बात को सभी देवतागण अच्छी तरह जानते थे.) इसी डर से राजा दशरथ को ऐसी बुद्धि और आतुरता देवताओं ने ही दी थी (कि वे बिना किसी की प्रतीक्षा किये तुरंत श्रीराम का राज्याभिषेक कर दें).”

इसी बात को रामचरितमानस में और अच्छे से स्पष्ट किया गया है.

कुलगुरु वशिष्ठ जी राजा दशरथ जी से कहते हैं कि “हे राजन्‌! अब देर न कीजिए, शीघ्र सब सामान सजाइए.”

और तब राजा दशरथ जी अपने सभी मंत्रियों, सेवकों आदि को बुलवाकर कहते हैं कि “श्रीराम के राज्याभिषेक के लिए मुनिराज वशिष्ठजी की जो-जो आज्ञा हो, आप लोग वही सब तुरंत करें. यदि आप सबको यह मत अच्छा लगे, तो हृदय में हर्षित होकर आप लोग राम का राजतिलक कीजिए.”

अपने राज्याभिषेक की बात सुनकर श्रीराम को अच्छा नहीं लगा और वे सोचने लगे कि, “हम सब भाई एक साथ जन्मे. खाना, सोना, लड़कपन के खेल-कूद, यज्ञोपवीत और विवाह आदि उत्सव सब साथ-साथ ही हुए. पर इस निर्मल वंश में यही एक अनुचित बात हो रही है कि सब भाइयों को छोड़कर राज्याभिषेक मेरा ही हो रहा है.”

सब लोग भरतजी का आगमन मना रहे हैं और कह रहे हैं कि वे भी जल्दी ही आ जाएं और राज्याभिषेक का उत्सव देखें.

यह सब देखते ही देवता बड़ी चिंता में आ गए और मां सरस्वती जी के चरणों में गिर पड़े और बोले, “हे माता! हमारी बड़ी विपत्ति को देखकर आज वही कीजिए जिससे श्रीराम राज्य त्यागकर वन को चले जाएं और देवताओं के सब कार्य सिद्ध हो जाएं.”

बिपति हमारि बिलोकि बड़ि मातु करिअ सोइ आजु।
रामु जाहिं बन राजु तजि होइ सकल सुरकाजु॥


माता कैकेयी के पास एक दासी थी, जिसका नाम मंथरा था. वह माता कैकेयी के मायके से ही आई थी और सदा उनके साथ ही रहती थी. मंथरा को जब पता चला कि अगले ही दिन श्रीराम का राजतिलक होने वाला है, तो उसका हृदय ईर्ष्या से जल उठा. उसे इसमें रानी कैकेयी का अनिष्ट दिखाई देता था. वह विचार करने लगी कि किस प्रकार से यह काम रात ही रात में बिगड़ जाए. वह महल में लेटी हुईं रानी कैकेयी के पास जाती है और कहती है-

“अरे उठो रानी! सो क्या रही हो? तुम पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा है और तुम्हें अपनी दुरवस्था का बोध नहीं होता?”

यह सुनकर माता कैकेयी ने डरकर कहा- “क्या हुआ? तुम इतनी चिंता में क्यों हो? कोई अमंगल बात तो नहीं हो गई? श्रीराम, राजा, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न सब कुशल से तो हैं न?”

मंथरा बातचीत करने में बड़ी कुशल थी. वह माता कैकेयी के मीठे वचन सुनकर और भी खिन्न हो गई. वह स्वयं को उनका सबसे बड़ा हितैषी दर्शाते हुए माता कैकेई के मन में श्रीराम के प्रति भेदभाव और विषाद उत्पन्न करती हुई बोली-

“देवी! तुम्हारे सौभाग्य के महाविनाश का कार्य आरंभ हो गया है. कल महाराज दशरथ श्रीराम को युवराज के पद पर बिठाने वाले हैं. यह समाचार पाकर मैं दुख और शोक से व्याकुल हो उठी हूँ, चिंता के मारे जली जा रही हूँ, और तुम्हारे ही हित की बात बताने यहां आई हूं, किन्तु ऐसी दुःखजनक बात सुनकर भी तुम मेरी और इस प्रकार देख रही हो, मानो तुम्हें बहुत प्रसन्नता हुई हो! तुम्हारा पुत्र परदेस में है, और तुम्हें कुछ सोच नहीं. तुम्हें तो पड़े-पड़े नींद लेना ही बहुत प्यारा लगता है, राजा की कपटभरी चतुराई तुम नहीं देखतीं? देखो! महाराज ने भरत को तो तुम्हारे मायके भेज दिया और कल सबेरे ही अवध के निष्कंटक राज्य पर श्रीराम का अभिषेक करने जा रहे हैं.”

मंथरा की बात सुनकर माता कैकेयी सहसा पलंग से उठ बैठीं. उनका हृदय हर्ष और प्रसन्नता से भर गया. उनके मुख पर और भी चमक आ गई. वे मन ही मन अत्यंत संतुष्ट हुईं और हर्ष से भरकर मंथरा को पुरस्कार स्वरूप अपना सुन्दर आभूषण देकर प्रसन्नता से बोलीं-

“मन्थरे! यह तो तुमने बड़ा ही प्रिय समाचार सुनाया. तुमने मुझे जो बात बताई, उसके बदले मैं तुम पर क्या उपकार करूँ? कल महाराज मेरे राम का राजतिलक करने वाले हैं, यह सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई. मैं राम और भरत में कोई भेद नहीं समझती. बड़ा भाई छोटे भाई का स्वामी होता है. राम को भी सब माताएँ कौसल्या दीदी के समान ही प्यारी हैं, और मुझसे तो वे विशेष प्रेम करते हैं. राम मुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय हैं. उनके राजतिलक से तुम्हें कैसा क्षोभ? तुम हर्ष के समय विषाद क्यों कर रही हो? सुंदर मंगलदायक शुभ दिन वही होगा, जिस दिन राम का राजतिलक होगा.”

“राम के अभिषेक के इस समाचार से बढ़कर दूसरा कोई प्रिय व अमृत के समान मधुर वचन नहीं कहा जा सकता. ऐसी परम प्रिय बात तुमने मुझसे आकर कही है, अतः तुम मुझसे प्रिय वस्तु पाने के योग्य हो. कल ही राम का तिलक है, तो हे सखी! तेरे मन को जो अच्छा लगे, वही वस्तु मुझसे माँग ले, मैं अवश्य दूँगी.”

यह सुनकर मंथरा ने कैकेई की निंदा करके उनके दिए हुए आभूषण को उठाकर फेंक दिया और क्रोध व दुख से भरकर बोली-

“रानी! तुम तो बड़ी नादान हो. अरे! इस महान संकट में पड़ने पर जहां तुम्हें शोक होना चाहिए, तुम्हें प्रसन्नता हो रही है? मुझे तो तुम्हारी दुर्बुद्धि के लिए अधिक शोक होता है. अरे रानी! सौत का बेटा शत्रु होता है. भला उसके अभ्युदय (उन्नति) का अवसर आया देखकर कौन सी बुद्धिमती स्त्री प्रसन्न होगी? रानी! तुमने जो कहा कि मुझे राम प्रिय हैं और राम को तुम प्रिय हो, सो यह बात सच्ची है, परन्तु यह बात पहले थी, वे दिन अब बीत गए. समय फिर जाने पर मित्र भी शत्रु हो जाते हैं. राम की माता कौसल्या बड़ी चतुर और गंभीर है. उसने मौका पाकर राजा से अपनी बात बना ली.”

इसके बाद मंथरा माता कैकेई के मन-मस्तिष्क में अनेक प्रकार से यह भरने का प्रयास करती है कि ‘श्रीराम के बाद आयु में भरत जी का ही स्थान आता है. राज्य पाने के बाद श्रीराम सब प्रकार के वैभव से संपन्न हो जायेंगे और तब कौशल्या तुम्हें (कैकयी को), और श्रीराम तुम्हारे पुत्र भरत को अपना दास बनाकर रखेंगे और तुम लोगों के साथ बुरा बर्ताव करेंगे. इसी के साथ, श्रीराम भरत को अपने रास्ते से हटाने का भी प्रयास करेंगे, ताकि सदा के लिए वे ही राजा बने रहें.’

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि मंथरा को इस प्रकार की बहकी-बहकी बातें करते देख माता कैकेई बड़ी अप्रसन्न हुईं, वे श्रीराम के गुणों की प्रशंसा करते हुए मंथरा से कहती हैं-

“अरी कुब्जे! राम धर्म के ज्ञाता, गुणवान, जितेंद्रिय, सत्यवादी, कृतज्ञ और पवित्र होने के साथ-साथ महाराज के ज्येष्ठ पुत्र भी हैं, अतः वे ही युवराज होने के योग्य हैं. वे दीर्घजीवी होकर अपने भाइयों और प्रजा का पिता की भांति पालन करेंगे. मुझे समझ नहीं आ रहा कि उनके अभिषेक की बात सुनकर तुम इतनी क्यों जल रही हो और तुम चिंता क्यों करती हो? श्रीराम की राज्यप्राप्ति के सौ वर्ष बाद भरत को भी अपने पिता-पितामहों का राज्य मिलेगा. आखिर ऐसे हर्ष के समय, जबकि भविष्य में कल्याण ही कल्याण दिखाई दे रहा है, तुम इस प्रकार जलती हुई इतनी दुखी क्यों हो रही हो? मेरे लिए जैसे भरत हैं, वैसे ही बल्कि उनसे भी बढ़कर श्रीराम हैं, क्योंकि राम तो कौशल्या दीदी से भी बढ़कर मेरी सेवा करते हैं. यदि राम को राज्य मिल रहा है तो उसे भरत को मिला हुआ ही समझो, क्योंकि राम अपने भाइयों को भी अपने समान ही समझते हैं.”

माता कैकेई की यह बात सुनकर मंथरा लंबी सांस खींचकर बोली-

“रानी! तुम मूर्खतावश अनर्थ को ही अर्थ समझ रही हो. तुम्हें अपनी स्थिति का पता ही नहीं है. अरे! जब राम राजा हो जाएंगे, तब उनके बाद उनका जो पुत्र होगा, उसी को राज्य मिलेगा, भरत को नहीं. राजा के सभी पुत्र तो राजसिंहासन पर नहीं बैठते हैं. यदि सबको बिठा दिया जाए तो बड़ा भारी अनर्थ हो जाएगा. इसलिए राजा लोग राजकाज का सारा भार ज्येष्ठ पुत्र पर ही रखते हैं. यदि ज्येष्ठ पुत्र गुणवान न हो, तो दूसरे गुणवान पुत्रों को राज्य सौंप दिया जाता है, परन्तु राम समस्त गुणों से संपन्न हैं, समस्त शास्त्रों के ज्ञाता हैं, राजनीति में कुशल हैं और समय पर सभी कर्तव्यों का पालन करते हैं. अतः तुम्हारा पुत्र तो राज्य के अधिकार से दूर ही हटा दिया जाएगा और वह समस्त सुखों से वंचित हो जाएगा.”

“इसलिए रानी! मैं तुम्हारे ही हित की बात सुझाने के लिए आई हूं, परंतु तुम तो मेरा अभिप्राय समझती ही नहीं हो, बल्कि उल्टे सौत की उन्नति देखकर मुझे ही पुरस्कार देने चली हो. याद रखो! जब श्रीराम को राज्य मिल जाएगा तो वे भरत को अवश्य ही इस देश से बाहर निकाल देंगे. राम और लक्ष्मण में तो अश्विनीकुमारों जैसा प्रेम है, इसलिए श्रीराम लक्ष्मण का तो अनिष्ट नहीं करेंगे, पर वे भरत का अनिष्ट अवश्य करेंगे. अतः मुझे तो तुम्हारा हित इसी में दिखाई देता है कि श्रीराम इस राज्य को छोड़कर सीधे वन को चले जाएं. यदि तुम्हारा पुत्र भरत अपने पिता का राज्य प्राप्त कर लेगा, तो तुम्हारा और तुम्हारे पक्ष के सब लोगों का कल्याण होगा. अतः तुम ऐसा उपाय सोचो जिससे तुम्हारे पुत्र को राज्य मिल जाए और राम को वनवास हो जाए.”

इस तरह करोड़ों बातें गढ़-छोलकर और सैकड़ों सौतों की कहानियाँ बनाकर मन्थरा ने माता कैकेयी को बहुत उल्टा-सीधा समझा दिया. होनहारवश माता कैकेयी के मन में विश्वास हो ही गया. वे लम्बी और गरम सांस खींचकर बोलीं-

“मंथरा! तुम ठीक कहती हो. मुझे श्रीराम को शीघ्र ही यहां से वन भेजना चाहिए और भरत को युवराज के पद पर अभिषेक कराना चाहिए, परंतु मन्थरे! इस समय किस उपाय से मैं अपना यह अभीष्ट साधन करूँ? तुम ही उपाय बताओ कि भरत को यह राज्य प्राप्त हो जाए और राम वन को भी चले जाएं, यह काम बनेगा कैसे?”

माता कैकेई के ऐसा कहते ही उन्हें अधर्म का मार्ग दिखाने वाली मंथरा तुरंत बोली-

“अच्छा! अब देखो मैं क्या करती हूं. तुम मेरी बात ध्यान से सुनो जिससे केवल तुम्हारे पुत्र भरत को ही राज्य प्राप्त होगा, श्रीराम को नहीं.” और इसके बाद मंथरा माता कैकई को उनके पुराने दो वरों की कहानी याद दिलाती है और उन्हें किस प्रकार से मांगना है, वह भी समझा देती हैं. और फिर इसके बाद मंथरा माता कैकेयी से कहती हैं-

“तुम उन दो वरों के प्रभाव से महाराज को वश में करके श्रीराम के अभिषेक के आयोजन को पलट दो. तुम इन दोनों वरों को अपनी स्वामी से मांगो. एक वर के द्वारा भरत का राज्याभिषेक और दूसरे के द्वारा श्रीराम का 14 वर्ष का वनवास मांग लो. जब श्रीराम 14 वर्षों के लिए वन में चले जाएंगे, तब तक उतने समय में तुम्हारे पुत्र भरत समस्त प्रजा के हृदय में अपने लिए स्नेह पैदा कर लेंगे और इस राज्य पर स्थिर हो जाएंगे.”

“राम के 14 वर्षों के लिए वन में चले जाने पर तुम्हारे पुत्र भरत के लिए राज्य सुदृढ़ हो जाएगा और प्रजा आदि को वश में कर लेने से यहां उनकी जड़ें जम जाएँगी. फिर वे 14 वर्षों के बाद भी आजीवन राजा बने रहेंगे, इसलिए रानी! तुम राजा से राम के वनवास का वर अवश्य मांगना. ऐसा करने से तुम्हारे पुत्र के सभी मनोरथ सिद्ध हो जाएंगे. वनवास में जाने पर राम राम नहीं रह जाएंगे, अर्थात आज जो उनका प्रभाव है, वह भविष्य में नहीं रह जाएगा, और तब तक तुम्हारे पुत्र भरत भी शत्रुहीन राजा होंगे. जिस समय श्रीराम वन से लौटेंगे, उस समय तक तो तुम्हारे पुत्र भरत भीतर और बाहर से दृढ़ हो जाएंगे, उनके पास सैनिक बल का संग्रह हो जाएगा, अपने सुहृदयों के साथ रहकर दृढ़ हो जाएंगे.”

मन्थरा की बातें सुनने में तो कोमल (हितकर) जान पड़ती थीं, पर परिणाम बड़े भयानक थे.


यदि हम केवल ऊपरी बातों को देखें (यानी रामायण के रहस्यों की तरफ न जाएं कि रावण सहित सभी राक्षसों के वध के लिए मंथरा और माता कैकेयी को निमित्त बनना था, इसीलिए वे यह सब कर रही थीं), तो यहाँ मंथरा की बातों से स्पष्ट है कि मंथरा चाहती थीं कि भरत के आने से पहले ही श्रीराम वन को चले जाएँ. जब तक श्रीराम वनवास काटकर वापस आएं, तब तक न तो राज्य पर उनका कोई अधिकार रह जाए और न ही कोई योग्यता, और न ही श्रीराम-सीता जी की कोई संतान राज्य पर अपना दावा ठोके. इसीलिए उन्होंने श्रीराम के लिए ब्रह्मचर्य व्रत के पालन के साथ वनवास मांगने के लिए कहा था. माता कैकेयी की यह इच्छा भी राम-सीता जी ने प्रेम से स्वीकार कर ली थी. श्रीराम का 14 वर्षों तक किसी नगर में भी प्रवेश वर्जित था.

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि ऐसी बातें कहकर मंथरा ने माता कैकेयी की बुद्धि में अनर्थ को ही अर्थ रूप में ऊंचा बना दिया. माता कैकेयी को मंथरा की बातों पर विश्वास हो गया और वे मन ही मन बहुत प्रसन्न हुईं. हालांकि माता कैकेयी बहुत समझदार थीं, तो भी मंथरा के कहने से नादान बालिका की तरह कुमार्ग पर चली गईं और अनुचित कार्य करने को तैयार हो गईं.

किसी और ने भले ही न समझा हो, पर श्रीराम ने माता कैकेयी को सदैव समझा और इसलिए उन्होंने कभी माता कैकेयी को दोष नहीं दिया. पंचवटी में जब लक्ष्मण जी श्रीराम से कहते हैं कि- “भैया! महाराज दशरथ जिनके पति हैं, और भरत भैया जैसा साधु जिनका पुत्र है, वह माता कैकेयी वैसी क्रूरतापूर्ण दृष्टि वाली कैसे हो गईं?”

वाल्मीकि जी लिखते हैं कि जब लक्ष्मण जी ऐसा कह रहे थे, तब श्रीराम से माता कैकेयी की निंदा सहन नहीं हुई, उन्होंने लक्ष्मण जी से कहा- “लक्ष्मण! तुम्हें मझली माता कैकेयी की कभी निंदा नहीं करनी चाहिए. यदि कुछ कहना ही चाहते हो तो भरत की ही चर्चा करो.” (अरण्यकाण्ड सर्ग 16 श्लोक 35, 36)

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